हिंदी सिनेमा के इतिहास में कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जो समय के साथ फीकी नहीं पड़तीं, बल्कि और भी निखरती जाती हैं। ‘उमराव जान’ (1981) एक ऐसी ही कालजयी फिल्म है, जिसे सिर्फ एक फिल्म नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक धरोहर माना जाता है। रेखा की भावनात्मक अदाकारी, मिर्जा हादी रुस्वा के उपन्यास पर आधारित कथानक, खय्याम की शास्त्रीय संगीतबद्धता और मुजफ्फर अली की कलात्मक दृष्टि — इन सबने मिलकर इसे अद्वितीय बना दिया।
लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि इस फिल्म का बनना कभी लगभग रुक ही गया था, क्योंकि प्रोडक्शन के दौरान बजट की भारी कमी आ गई थी। और उस समय लखनऊ के रईस खानदानों ने आगे आकर फिल्म को पूरा होने में मदद दी। यह किस्सा किसी फिल्म की पटकथा से कम नहीं लगता — जहां असली जिंदगी में कला की रक्षा के लिए लोग आगे आते हैं।
निर्देशक मुजफ्फर अली, जो खुद भी लखनऊ की रॉयल फैमिली से ताल्लुक रखते थे, एक ऐसी फिल्म बनाना चाहते थे जो शायरी, संगीत, नृत्य और दर्द की भावनाओं से परिपूर्ण हो — एक ऐसी तवायफ की कहानी जो सिर्फ मोहब्बत नहीं करती, बल्कि समाज की कठोरता से भी लड़ती है।
रेखा को ‘अमीरन’ यानी उमराव जान के किरदार में लेने का निर्णय बेहद साहसी था। यह एक ऐसा रोल था जिसमें सिर्फ सुंदरता नहीं, बल्कि गहराई, दर्द और अदब की झलक भी होनी चाहिए थी — और रेखा ने इसे बिल्कुल जीवंत कर दिया।
फिल्म का अधिकांश भाग लखनऊ की पुरानी हवेलियों, कोठों और मुशायरों के वातावरण को दोबारा जीवंत करने में खर्च हो रहा था। परंतु जब शूटिंग के बीच में पैसे की कमी हुई, तो फिल्म पूरी रुकने के कगार पर थी।
तभी लखनऊ के नवाबी खानदानों, जिनमें कुछ अभी भी अपने पूर्वजों की विरासत को संजोए हुए हैं, उन्होंने इस फिल्म को बचाने के लिए आर्थिक मदद की। कहा जाता है कि कुछ ने अपने पारंपरिक गहने और धरोहरें तक गिरवी रखीं, ताकि फिल्म की शूटिंग पूरी हो सके।
यह समर्थन सिर्फ आर्थिक नहीं था, बल्कि कलात्मक विरासत को जीवित रखने का संकल्प भी था।
रेखा की अदाकारी ने इस किरदार को अमर कर दिया। गीत जैसे –
"इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं..."
"दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए..."
आज भी सुनने वालों को मुग्ध कर देते हैं। खय्याम की शास्त्रीय धुनें और शाहरीर लता मंगेशकर और आशा भोसले की आवाज़ — इन सबने फिल्म को एक नई ऊंचाई दी।
2025 में, जब फिल्मों को दोबारा परदे पर लाने का ट्रेंड चल रहा है, PVR-INOX ने घोषणा की है कि उमराव जान को 4K वर्जन में रीस्टोर कर 27 जून को दोबारा रिलीज़ किया जाएगा।
यह उन दर्शकों के लिए एक सुनहरा अवसर है, जिन्होंने इस क्लासिक को बड़े पर्दे पर कभी नहीं देखा।
‘उमराव जान’ सिर्फ एक फिल्म नहीं थी। यह एक ऐसा प्रयास था जिसमें इतिहास, संस्कृति, शायरी, और कला — सब एक साथ सजीव हुए थे।
और इस प्रयास को बचाने में लखनऊ की तहज़ीब और नवाबी संस्कृति की अहम भूमि